ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है. अगर कुछ वैज्ञानिकों की मानें तो यह ग्लोबल वॉर्मिंग एक प्रकृतिजन्य प्रक्रिया का हिस्सा है, जो एक निश्चित समय चक्र पर लगातार होती है.
इसके कारण पृथ्वी पर रहने वाली सभी प्रजातियों को लगातार परिवर्तनशील होना पड़ता है. प्राकृतिक रूप से होने वाली ये प्रक्रियाएं प्रजातियों के क्रमिक विकास के लिए फायदेमंद होती है.
हालांकि यह सिद्धांत पूरी तरह मान्य नहीं है और देखा जाए तो मानव गतिविधियों के कारण ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों में तेजी से जलवायु परिवर्तन तेज हो गया है. अनेक पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हो रहा जलवायु परिवर्तन निकट भविष्य में कई प्रजातियों के विलुप्त होने का सबसे बड़ा कारण हो सकता है.
जलवायु परिवर्तन का सबसे दूरगामी प्रभाव पड़ता है उस क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों पर. तापमान के कुछ डिग्री सेंटीग्रेट ऊपर नीचे होने भर से कई प्रजातियां के विलुप्तीकरण का खतरा पैदा हो जाता है. ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ता है क्षेत्र के स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र पर, जो बहुत ही नाजुक होते हैं.
ध्रुवीय भालू पर ग्लोबल वॉर्मिंग की सीधी मार
एक ओवरहीटिंग जलवायु वैश्विक परिस्थितियों में कितना बड़ा परिवर्तन पैदा कर रही है और मौजूदा नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियों में वर्तमान प्रजातियों को कितना नुकसान हो सकता है, नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता हैः
उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित कनाडा के बर्फीले मैदानों से ध्रुवीय भालू गायब होते जा रहे है, क्योंकि कनाडा में बर्फीला क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है. ध्रुवीय भालुओं के प्राकृतिक रहवास में बर्फ उनकी खाद्य श्रृंखला के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तत्व है. आर्कटिक समुद्र में भालू शिकार के लिए सिर्फ बर्फ पर निर्भर हैं. यह जीव खुले समुद्र में सील व मछलियों का शिकार करते समय बर्फ को एक अस्थायी मंच के रूप में उपयोग करता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि आर्कटिक समुद्र में बर्फ प्रति दशक 9 प्रतिशत की दर से पिघल रही है. यह समुद्र ही ध्रुवीय भालू का एकमात्र निवास स्थान है, जहां उनके अस्तित्व पर खतरा छा गया है.
दक्षिण अमेरिका में सालाना प्रजनन के लिए समुद्री कछुए ब्राजील के समुद्र तटों पर अपने अंडे देने आते हैं, तटों की नरम रेत पर घोंसले बनाने की सबसे बड़ी वजह है वहां का मुफीद तापमान. रेत का तापमान कछुओं के अंडों का लिंग निर्धारण करता है. ठंडी रेत से मादा कछुए और अगर रेत गरम हो तो नर कछुए अंडों से बाहर आते हैं और इस संतुलन से वंशवृद्धि निश्चित होती है.
लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र का स्तर बढ़ने लगा है और अलग-अलग स्थानों पर दिए गए अंडों के पानी में डूबने का खतरा बना हुआ है. ग्लोबल वॉर्मिंग के
पिघल रहे हैं ग्लेशियर कारण पानी का तापमान भी अनिश्चित हो गया है. इससे रेत के तापमान में घट-बढ़ से अंडों से सभी मादा या नर कछुए पैदा होने का डर है, जिससे इस प्रजाति का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है.
उत्तरी अटलांटिक के सबसे बड़े और शानदार प्राणी व्हेल से मानव द्वारा शोषण का एक लंबा इतिहास जुड़ा है, लेकिन अब समुद्र के पानी के तापमान में वृद्धि के कारण व्हेल का आहार प्रभावित हो रहा है.
प्लांक्टन और कवक पर आश्रित व्हेल को अब खाने की तलाश में काफी दिक्कतें आ रही हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते पानी का तापमान बदला है, जिससे प्लांक्टन और कवक की संख्या में अप्रत्याशित कमी देखी गई है.
चीन के विशाल पांडा का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है. इसके आवास दक्षिण पश्चिमी चीन के पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले बांस के वन अब खंडित हो चुके हैं. विशाल पांडा की आबादी अब नगण्य है और इनका मुख्य आहार बांस है. चीन के बांस के जंगल एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं
A blog for BIOLOGY students by : Susheel Dwivedi PGT Biology Kendriya Vidyalaya Secter J Aliganj Lucknow U P
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