Wednesday, May 19, 2010

दक्षिण अफ्रीका में मिला पूर्वजों का प्राचीन कंकाल

 मानव उत्पति के इतिहास में नया मोड़ साबित हो सकने वाली एक खोज में जीवाश्म विज्ञानियों ने दक्षिण अफ्रीका से दो प्राचीन नरकंकाल-जीवाश्म बरामद किए हैं। अब इस खोज के बाद कहा जा रहा है कि लोगों को मानवीय उत्पत्ति के संबंध में पहले की धारणा को बदलना होगा क्योंकि उनकी उत्पति अभी के रिकार्ड के बाद हुई थी। विटवाटर्सरैंड विश्वविघालय के प्रोफेसर ली बर्गर के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने 19 लाख वर्ष पुराने दो नरकंकालों के जीवाश्म बरामद किये जो संभवत: मां-बेटे के हैं। दक्षिण अफ्रीका में एक गुफा में पाए गए ये नरकंकाल दिखने में कपि जैसे हैं। जीवाश्म विज्ञानियों के अनुसार आस्ट्रेलोपिथिकस सेडिवा प्रजाति के इन नरकंकालों के पैर सीधे लंबे हैं और नाक उभरी हुई है। साथ ही इसके हाथ लंबे हैं। ‘द टाइम्स’ ने प्रो.बर्गर के हवाले से खबर दी है, ‘हमें लगता है कि होमो जीनस को परिभाषित करने के लिए आस्ट्रेलोपिथिकस सेडिबा बहुत महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है।’

बर्गर के हवाले से दी गई इस खबर में बताया गया है, ‘इस जीवाश्म मेें कई विस्मयकारी लक्षण हैं जिससे लगता है यह प्राणी दोनों प्रकार की जीवनशैली में काफी सहज था।’ उन्होंने कहा कि मादा 20 से 30 वर्ष के बीच की होगी और बालक की उम्र आठ या नौ वर्ष होगी। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि दोनों मां और बेटा पानी की खोज में एक गुफा में उतरे होंगे और वहां से 150 फीट गहरी सुरंग में गिरकर जिंदा दफन हो गए होंगे। होंगेबर्गर ने कहा कि इससे संभवत: इस बात के संकेत मिलते हैं कि मानव के इन पूर्वजों में यह क्रियाकलापों में बदलाव का समय था। उन्होंने बताया कि यह वह समय था जब वे पेड़ों की डालों पर झूलना छोड़कर सीधे चलने का प्रयास कर रहे थे। जीवाश्म अवशेषों की खोज नौ साल के मैथ्यून नामक बालक द्वारा की गई जो अपने पिता के साथ दक्षिण अफ्रीका स्थित माल्पा गुफा में जीवाश्म खोज अभियान में अपने पिता के साथ गया था। यह खोज ‘साइंस’ जर्नल के नये अंक में प्रकाशित हुई है।

अब बुढ़ापे में भी जवानों जैसी ताकत देगा-सुपर सूट’


 उम्र बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक सामर्थ्य कमजोर होने लगती है, यह प्रकृति का नियम है। लेकिन अब उम्रदराज लोगों को इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि अब वे बुढ़ापे में भी युवाओं जैसे दमखम से काम कर सकते हैं। इसे संभव बनाया है जापानी वैज्ञानिकों ने। टोक्यो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा नया ‘सुपर सूट’ बनाया है जिसे पहनने वाला कमजोर से कमजोर व बूढ़ा व्यक्ति भी पैरों और भुजाओं में अद्भुत ताकत महसूस करेगा। इसे पहनने के बाद कमर, पीठ और ऐंठन से होने वाला दर्द भी छूमंतर हो जाएगा। धातु और प्लास्टिक से निर्मित इस ‘एक्सोस्केलेटन’ सूट में आठ इलेक्ट्रिक मोटरों के अलावा कई सेंसर्स लगे हैं जो शारीरिक हलचलों का पता लगाकर आवाज-पहचानने वाली एक प्रणाली के जरिए आदेश प्रेषित करते हैं। प्रोफेसर शिगेकी और उनकी टीम को इस सूट को विकसित करने में 15 साल का वक्त लगा है। इस साल के अंत तक इस सूट का उत्पादन शुरू करने के लिए इस टीम की योजना कंपनी स्थापित करने की है। इस रोबो सूट को पहनने के बाद इसके प्रयोगकर्ता के शारीरिक प्रयास 62 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं। इसे इस तरह डिजाइन किया गया है कि पहनने के बाद कोई भी वृद्ध जमीन से भारी से भारी चीज उठा सकता है और जमीन से सब्जी उखाड़ सकता है। इस रोबो सूट के आविष्कारकों के अनुसार जब घुटनों को झुकाया जाता है, तब मांसपेशियों की गतिविधि आधा हो जाती है.. लेकिन यह सूट झुकाव का ज्यादातर दबाव स्वयं उठा लेता है। इस रोबो सूट का सबसे ज्यादा फायदा जापान के किसानों को मिलेगा क्योंकि जापान में निम्न जन्मदर और बढ़ती औसत आयु की वजह से उम्रदराज लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। इससे मिलते-जुलते रोबो सूट जापान के अस्पतालों और रिटायरमेंट होम्स में इस्तेमाल किए जा रहे हैं जिसमें ये मरीजों को उठाने-बिठाने आदि में उनकी देखभाल करने वालों की मदद करते हैं। शुरूआत में इस सूट की कीमत 7 हजार पौंड रखी गई है लेकिन जब इनका उत्पादन बड़े स्तर पर होने लगेगा, तब निर्माताओं को उम्मीद है इसकी कीमत आधे से भी कम हो जाएगी। फिलहाल इस तरह के सूट देश से बाहर बेचने की योजना नहीं है लेकिन भविष्य में यह सब देशों में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा।

मत्यु से पहले दिखती है ज्योति







 आखिर मौत के मुंह में जाने से पहले क्या कोई चमकदार ‘ज्योति’ नजर आती है या फिर ऐसा लगता है कि हम दिव्यत्व में प्रवेश कर रहे हैं। हालांकि ये सवाल ऐसे हैं जो सदियों से लोगों और वैज्ञानिकों को उलझाते रहे हैं। लेकिन इस बार वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को ढूंढ निकाला है जिससे लोग मौत के मुंह में जाने से पहले चमकदार प्रकाश या शांति और दिव्यत्व जैसा महसूस करते हैं। उनका कहना है कि ‘मृत्यु के नजदीक अनुभव’ करने वालों के रक्त में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर अधिक होता है। यह बात स्लोवेनिया में अनुसंधानकर्ताओं ने तीन बड़े अस्पतालों में दिल के दौरों के मरीजों पर गहन शोध के बाद कही है।

शोध के मुताबिक, कार्बन डाइऑक्साइड दिमाग के रसायनिक संतुलन को प्रभावित करती है जिस कारण रोशनी, सुरंग या फिर लाशें दिखायी देती हैं। इस अध्ययन में 52 मरीजों को शामिल किया गया था जिनकी औसत उम्र 53 साल थी। इनमें 42 पुरूष थे। ग्यारह मरीजों ने मौत के नजदीक अनुभव किया था लेकिन उम्र, लिंग, शिक्षा स्तर, धार्मिक विश्वास, मौत के डर और सही होने के समय या उन्हें बचाने के लिए दी जाने वाली दवाओं के संदर्भ में उनमें किसी तरह का कोई संबंध नहीं था। इसके बजाय सबमें जो सामान्य चीजें पाई गई थीं वह उनके रक्त में कार्बन डाइऑक्साइड का उच्च स्तर और पोटेशियम की मात्रा कम होना थी।

यूनिवर्सिटी ऑफ मारीबोर के जलीका क्लेमेंक केटिस के नेतृत्व में किए गए इस शोध को लेकर उनका कहना था कि जिन मरीजों ने ऐसा महसूस किया उनके रक्त में काफी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड था। हालांकि उनका मानना है कि परिणामों की पुष्टि के लिए बड़ी संख्या में मरीजों पर अध्ययन किए जाने की जरूरत है। क्योंकि पूर्व के अध्ययनों में यह बात सामने नहीं आई थी। हालांकि पूर्व के अनुसंधानों के अनुसार दिल के दौरों से बचने वाले 11 से 23 प्रतिशत के बीच की संख्या में लोगों ने ‘मृत्यु के नजदीक अनुभव (एनडीईज)’ किया होता है। हालांकि इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं कि मृत्यु के कुछ समय तक दिमाग सक्रिय रहता है लेकिन उस दौरान शरीर में काफी कुछ होता रहता है जिस पर अध्ययन की जरूरत है। ‘मृत्यु के नजदीक अनुभव’ विषय पर अक्सर बहस होती रही है जिसमें लोग तरह-तरह की चीजें महसूस करते हैं।

घुटने के दर्द से परेशान मरीजों के लिए नयी थेरेपी





 घुटने के दर्द से परेशान मरीजों के लिए एक अच्छी खबर है। उनके लिए दर्दनाशक दवाओं पर निर्भरता या घुटने का ऑपरेशन अब जल्द ही अतीत का हिस्सा बन सकता है क्योंकि एक नयी थेरेपी से कई मरीजों को राहत मिल रही है।

इस थेरेपी का नाम ‘‘विस्कोसप्लीमेन्टेशन’’ है और इसमें अधिक समय नहीं लगता। एक इंजेक्शन लगाने के बाद घुटने के दर्द से कम से कम छह माह तक राहत मिल सकती है। यह थेरेपी उन लोगों के लिए कारगर साबित हो रही है जो ‘‘ऑस्टियोअर्थराइटिस’’ से परेशान हैं और जिन पर परंपरागत दवाओं या व्यायाम का असर नहीं होता। जो मरीज घुटने का ऑपरेशन नहीं कराना चाहते, उनके लिए भी यह थेरेपी लाभदायक है।

फोर्टिस हॉस्पिटल के आर्थोपेडिक सर्जन डा गुरिंदर बेदी का कहना है ‘‘मरीज को केवल एक बार ही अस्पताल आना होगा और उसे एक इंजेक्शन लगाया जाएगा जिसके बाद कम से कम छह माह तक उसे राहत मिल जाएगी।’’ घुटने की तकलीफ का एक मुख्य कारण ‘‘नी ऑस्टियोअर्थराइटिस’’ वास्तव में ‘‘ऑस्टियोअर्थराइटिस’’ का बहुत ही सामान्य प्रकार है। भारत में 1.5 करोड़ से अधिक व्यक्ति इस बीमारी से पीड़ित हैं जिनमें महिला मरीजों की संख्या अधिक है।

अर्थराइटिस के कारण घुटने में होने वाला दर्द उम्र के साथ साथ बढ़ता जाता है। यह तकलीफ इतनी अधिक हो जाती है कि दर्द से राहत खास तौर पर महत्वपूर्ण हो जाती है। इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल में आर्थोपेडिक एंड जॉइंट रिप्लेसमेंट सर्जन डॉ राजू वैश्य बताते हैं ‘‘विस्कोसप्लीमेंटेशन’’ के तहत नीकैप के अंदर घुटने में सीधे इंजेक्शन लगाया जाता है। इस प्रक्रिया में घुटने से द्रव पदार्थ बाहर निकाला जाता है और इसकी जगह उससे मिलता जुलता एक पदार्थ डाला जाता है। यह तरल पदार्थ ही दर्द से राहत देता है और मरीज के लिए चलना फिरना आसान हो जाता है।’’

विशेषज्ञों को लगता है कि नयी थेरेपी से मरीज की, दर्दनाशक दवाओं तथा स्टीरॉयड पर निर्भरता खत्म होगी जिसकी वजह से इन दवाओं के दुष्प्रभावों से भी वह बच सकेगा। इन दवाओं को न लेने पर उसे अल्सर या पेट की अन्य समस्याएं होने का खतरा भी नहीं होगा।

मां के दूध से बनी फेस क्रीम से मुंहासे ग़ायब


 मां के दूध में नारियल के तेल को मिलाकर बनाया गया फेस क्रीम टीनएजर्स में होने वाले मुंहासों को दूर करता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों का मानना है कि मां के दूध में ल्युरिक एसिड पाया जाता है जो नारियल के तेल में भी मौजूद होता है जिसमें मुंहासों को दूर करने की क्षमता होती है। उनका कहना है कि इस उपचार से कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है क्योंकि यह पूरी तरह से प्राकृतिक उत्पाद है। वर्तमान में बाजार में मिलने वाले फेस क्रीम से चेहरे लाल हो जाते हैं और जलने लगते हैं।


माना जा रहा है कि इस शोध से उन लाखों टीनएजर्स को राहत मिलेगी जो मुंहासे से परेशान रहते हैं। हालांकि वैज्ञानिकों को फिलहाल इस तरह की क्रीम तैयार करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इसमें मिलाए जाने वाली सामग्री प्राकृतिक रूप में है और इसके लिए स्वीकृति की जरूरत होगी। कैलिफोर्निया विश्वविघालय के छात्र डिजे पोर्नपट्टानांगकुल ने इस बात की खोज की है कि पूरी दुनिया के लाखों टीनएजर्स ल्युरिक एसिड की सहायता से मुंहासे से निजात पा सकते हैं। उन्होंने बताया कि यह एक अनोखी खोज है जिससे लोगों को ड्रग के सेवन से मुक्ति मिलेगी। अमेरिका में करीब 85 फीसद टीनएजर्स और चार करोड़ लोग मुंहासे से पीड़ित हैं जो लगातार इलाज करा रहे हैं और इसके दुष्प्रभावों को झेलने के लिए विवश हैं।

दिल की बीमारियों से बचाता है विटामिन ‘बी’







 एक नए अध्ययन में कहा गया है कि प्रतिदिन विटामिन ‘बी’ से भरपूर आहार लेने से दिल की बीमारियों और स्ट्रोक से बचा जा सकता है। जापान में शोधकर्ताओं ने पाया कि विटामिन ‘बी’ और ‘बी 6’ से भरपूर भोजन महिलाओं और पुरूषों में स्ट्रोक यानी मस्तिष्क में खून की आपूर्ति बाधित होना और दिल की बीमारियों के खतरे को कम करता है।

शोध करने वाले प्रमुख शोधकर्ता हिरोयासु इसो ने कहा कि जापान के लोगों को विटामिन बी से भरपूर भोजन लेने की जरूरत है जो उन्हें दिल की बीमारियों से बचाएगा। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 40 से 79 वर्ष की उम्र के 23119 पुरूष और 35611 महिलाओं से आंकडे़ एकत्रित करके शोध किया। तुलनात्मक अध्ययन में पाया गया कि विटामिन बी-6 और विटामिन बी 12 से भरपूर भोजन लेने वालों में स्ट्रोक और दिल संबंधी बीमारियों के खतरे की आशंका कम होती है।

प्रत्यारोपण में ऐतिहासिक उपलब्धि:क्षतिग्रस्त चेहरा बदल डाला

 स्पेन के वैज्ञानिकों ने दुनिया में अपनी तरह की पहली फेस ट्रांसप्लांट सर्जरी को अंजाम दिया है। सर्जनों और डॉक्टरों की टीम ने एक 30 वर्षीय पुरूष के पूरे चेहरे का प्रत्यारोपण किया है, जिसका चेहरा वर्ष 2005 में एक दुर्घटना में बुरी तरह नष्ट हो गया था। ‘द टेलीग्राफ’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बार्सिलोना के एक अस्पताल में डॉ. जॉन पेरे बॉरेट के नेतृत्व में 30 प्लास्टिक सर्जनों ने पिछले महीने एक मरीज पर ऐसी सर्जरी की। ऑपरेशन लगभग 24 घंटे तक चला। सर्जनों ने बताया कि ऑपरेशन में उन्होंने मरीज की गाल की हडि्डयों, चेहरे की मांसपेशियों, दांत, पैलेट, त्वचा, नाक, होंठ और जबड़े का प्रत्यारोपण किया। सर्जरी से पहले मरीज भोजन निगलने, बोलने और ठीक तरह से सांस लेने भी असमर्थ था। मरीज के लगभग दो महीने तक अस्पताल में रहने की संभावना है। अस्पताल द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया है कि इससे पहले मरीज का 9 बार ऑपरेशन हुआ था जो संतोषजनक रूप से सफल नहीं था। इस वजह से सर्जनों की टीम ने मरीज के पूरे चेहरे का ट्रांसप्लांट करने पर विचार किया। यह पहला मौका है जब पूरी दुनिया में किसी व्यक्ति के पूरे चेहरे का ट्रांसप्लांट किया गया है। इससे पहले इससे मिलते-जुलते 10 ऑपरेशन हुए हैं लेकिन ये सभी आंशिक प्रत्यारोपण थे। दुनिया का पहला फेस ट्रांसप्लांट फ्रांस की एक महिला का था जो वर्ष 2005 मे तब किया गया था जब उसके कुत्ते ने उसके चेहरे को बुरी तरह क्षत-विक्षत कर डाला था। इसके बाद चीन और अमेरिका में इस तरह के आंशिक ट्रांसप्लांट हुए थे।

डॉक्टरों के मुताबिक, यघपि मरीज को किसी और का चेहरा दिया गया है लेकिन उसकी शक्ल दानदाता (जिसकी एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी) के चेहरे जैसी नहीं होगी। उसका नया चेहरा हाइब्रिड होगा। न तो उसके पुराने चेहरे जैसा और न दानदाता के चेहरे जैसा, बल्कि दोनों का मिश्रित चेहरा होगा। डॉ. बॉरेट के अनुसार, ‘हमारा लक्ष्य है कि मरीज कुछ ही हफ्तों में न सिर्फ बात कर सकेगा बल्कि खा सकेगा और मुस्कराने के साथ-साथ हंस भी सकेगा।’ डॉक्टरों की अब सिर्फ इतनी चिंता है कि मरीज का शरीर कहीं ट्रांसप्लांट को अस्वीकार न कर दे। इसके लिए मरीज को जिंदगीभर शक्तिशाली इम्यूनोसप्रेसेंट दवाइयां खानी होंगी। दुनिया के वैज्ञानिकों और सर्जनों ने इस ट्रांसप्लांट को बहुत महत्वपूर्ण बताया है। उन्होंने उम्मीद जताई है कि इस तरह के ट्रांसप्लांट से उन मरीजों को बड़ी राहत मिलेगी जिनके चेहरे दुर्घटनाओं के कारण विकृत या बर्बाद हो जाते हैं।

दिल के दौरे से हुए नुकसान की मरम्मत कर सकती है-स्टेमसेल

 दुनियाभर के दिल के दौरे के पीड़ितों के लिए एक अच्छी खबर है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि स्टेम कोशिकाएं दिल के दौरे के पीड़ित रोगी की क्षतिग्रस्त रक्त वाहिकाओं की मरम्मत कर सकती हैं। पत्रिका ‘सर्कुलेशन’ के अनुसार, ब्रिस्टल विश्वविघालय के एक दल ने स्टेम सेल हासिल करने और नई धमनियां बनाने के लिए उन्हें प्रेरित करने का एक तरीका खोज निकाला है। दिल का दौरा तब पड़ता है कि जब दिल की मांसपेशियों तक खून ले जा रही धमनी का रास्ता बंद हो जाता है या उसमें टूट फूट हो जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, भविष्य में ऐसा भी दिन आ जाएगा जब स्टेम सेल के इंजेक्शन देकर धमनियों की मरम्मत करना संभव होगा। वैज्ञानिकों ने अपने शोध में बाइपास आपरेशन के दौरान निकाल दी गई रक्त वाहिकाओं से स्टेम सेल निकाले। बाइपास के दौरान, रोगी के पांव से रक्त वाहिकाओं को काटकर रोगग्रस्त हृदय की धमनी में लगा दिया जाता है। इसके बाद रूके हुए खून को दूसरे रास्ते से निकाल कर आगे बढ़ा दिया जाता है।

शोध का नेतृत्व करने वाले प्रो. पाआ॓लो मादेदु ने कहा, ‘महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि सर्जन शिरा का सबसे लंबा हिस्सा काट लेते हैं इसलिए काफी हिस्सा बचा रह जाता है।’ वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के तहत यह देखना चाहते थे कि क्या आपरेशन के बाद बचे हुए हिस्से से वयस्क स्टेम सेल को हासिल किया जा सकता है। उन्हें यह जानकर हैरानी हुई कि वे काफी बड़ी संख्या में ऐसी कोशिकाओं को हासिल कर सकते हैं। प्रो. मादेदु ने कहा, ‘हमें कुछ हजार स्टेम सेल मिल गये। यह इलाज के लिए काफी नहीं हैं। लेकिन इन्होंने हमें एक ऐसा स्रोत मुहैया करा दिया जहां से हम कोशिकाओं को प्राप्त कर उनकी बढ़वार कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘हमने स्टेम सेलों की विशेष प्लेटों में विस्तार किया और हम इनकी संख्या बढ़ाकर पांच से छह करोड़ तक ले आये। इलाज के लिए इतनी स्टेम कोशिकाएं काफी थी।’

वृदि्ध हार्मोन से एथलीट भरते हैं तेज फर्राटा

 आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने पहली बार साबित कर दिखाया है कि मानवीय वृद्धि हार्मोन (ह्यूमन ग्रोथ हार्मोन, एचजीएस) का उपयोग करने वाले एथलीट तेज फर्राटा भर सकते हैं लेकिन इससे शक्ति या सामर्थ्य नहीं बढ़ता। अध्ययन के अनुसार, वृद्धि हार्मोन के कारण एथलीट की फर्राटा में तेजी चार से पांच फीसद बढ़ सकती है जो आ॓लंपिक ट्रैक स्पर्धा में पिछले स्थान पर रहने वाले को स्वर्ण पदक धारी तक बना सकती है। सिडनी के गारवेन इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल रिसर्च के प्रमुख अनुसंधानकर्ता प्रोफेसर केन हो ने कहा, ‘10 सेकेंड में यह चार फीसदी का सुधार 0.4 सेकेंड की अवधि हो सकती है जो एक बड़ा समय अंतराल होगा।’ केन ने कहा कि वृद्धि हार्मोन एचजीएस प्राकृतिक हार्मोन है जो शारीरिक क्षमता बढ़ाता है। यह वृद्धि और उपापचय दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने वृद्धि हार्मोन के उपयोग को प्रतिबंधित कर रखा है। माना जाता है कि इस हार्मोन का एथलीटों द्वारा व्यापक रूप से दुरूपयोग किया जाता है। परिणामस्वरूप मांसपेशियां बड़ी होती है और शक्ति, ताकत और क्षमता बढ़ती है। केन ने कहा कि हालांकि नये निष्कर्ष वाडा के प्रतिबंध को जायज ठहराते हैं फिर भी वृद्धि हार्मोन के इंजेक्शन से हर क्षेत्र में प्रदर्शन उन्नत नहीं होता है।

मेमोरी अनलिमिटेड यानी जेटाबाइट

 भूल जाइए मेगाबाइट, टेराबाइट, गीगाबाइट और पेटाबाइट के नाम।अब डिजिटल दुनिया की सबसे बड़ी ईकाई जेटाबाइट अवतरित हुई है। दिन दूनी प्रगति कर रही डिजिटल दुनिया (वर्चुअल रिएलिटी) के आकार ने पेशेवरों के दिमाग को खंगाल कर रख दिया है। इस बढ़ते आकार ने एक नई इकाई जेटाबाइट को जन्म दिया है। अब तक सबसे बड़ी इकाई पेटाबाइट का स्थान यह नया मात्रक लेगा। एक जेटाबाइट 10 लाख पेटाबाइट के बराबर होता है। या इसे 1,000,000,000,000,000,000,000 बाइट के समतुल्य व्यक्त कर सकते हैं।

‘द डेली टेलीग्राफ’ ने खबर दी है कि मानव अभी तक अस्सी लाख पेटाबाइट के दायरे में ही डिजिटल कार्य करता है। एक पेटाबाइट करीब 10 लाख गीगाबाइट के बराबर है। लेकिन इस वर्ष इसका आकार बढ़कर 1.2 जेटाबाइट हो जाने की संभावना है। वास्तव में विश्व में डिजिटल सामग्रियों का आकार इतना बड़ा है कि इसकी सारी सूचना को एप्पल कंपनी के 75 अरब आईपैड में संग्रह कर दिया जा सकता है। समझ लीजिए कि डिजिटल सामग्री का आकार इतना बड़ा होगा जितना माइक्रोब्लागिंग वेबसाइट ‘टि्वटर’ पर एक सदी तक विश्व के लोगों द्वारा किए गए लगातार मैसेज का।

प्रौघोगिक कंसल्टेंसी आईडीसी ने विश्व डिजिटल उत्पाद पर वार्षिक सर्वे के नतीजे जारी किए हैं। कंपनी का कहना है कि विश्व में जितना अधिक डिजिटल सामग्री उत्पादन होता है उसका 70 फीसद लोग निजी रूप से करते हैं। लेकिन इनका भंडारण फ्लिकर और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइटों द्वारा किया जाता है। पहला सर्वे 2007 में किया गया था। उस समय डिजिटल सामग्री संसार का आकार 1,61,000 पेटाबाइट होने का आकलन है।

सीडीआरआई ने बनाई स्मरण शकि्त की दवा

 केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई) ने तीस साल के शोध के बाद पूरी तरह जड़ी बूटियों से निर्मित स्मरण क्षमता बनाए रखने वाली दवा विकसित की है जिसका उपयोग बच्चे से बूढे़ तक कर सकते हैं। बिक्री के लिए इस दवा को ‘जार मेमोरी श्योर’ के नाम से बाजार में उतारा गया।

सीडीआरआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक राजेन्द्र प्रसाद ने   कहा कि ब्राह्मी नामक पौधे से इस दवा को तैयार किया गया है। इसे तैयार करने में तीस साल का लंबा समय लगा है। उन्होंने कहा कि आयुर्वेद में ब्राह्मी को पिछले तीन हजार साल से स्मरण शक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता रहा है। उन्होंने इस दवा के फायदे के बारे में कहा कि चूंकि यह पूरी तरह जड़ी बूटियों से निर्मित है इसलिए इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता।

यह दवा उन बच्चों के लिए कारगर है जिनमें अधिक चंचलता के कारण यौन और मनोयोग का विकार है या ऐसे प्रौढ़ जो अधिक उम्र के कारण स्मरण शक्ति के क्षरण के शिकार हैं। श्री प्रसाद ने कहा कि उम्र के साथ मस्तिष्क के एक विशेष भाग में कोशिकाओं की क्षति होने लगती है।

यह भाग ज्ञान बोध और स्मरण शक्ति के लिए विशेष रूप से काम करता है। वैज्ञानिकों ने शोध से यह साबित किया है कि मस्तिष्क में कुछ विषाक्त तत्व बनते हैं जिससे कोशिकाएं कमजोर होते-होते खत्म हो जाती हैं और आदमी के याद रखने की ताकत धीरे-धीरे बिल्कुल समाप्त हो जाती है।

अधिक ऊंचाई पर रहने के लिए तिब्बतियों में जीन्स विकसित

वाशिंगटन। लंबे समय से वैज्ञानिक इस बात पर आश्चर्य जताते रहे हैं कि तिब्बत के लोग इतनी ऊंचाई पर कैसे आसानी से रह लेते हैं, जबकि आम लोगों को ऑक्सीजन की कमी के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। लेकिन अब एक अध्ययन में इस रहस्य का उत्तर खोजने का दावा किया गया है। ‘साइंस एक्सप्रेस’ पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार एक अंतरराष्ट्रीय दल ने दावा किया है कि तिब्बतियों ने हजारों साल पहले ऊंचाई पर जीने के लिए खुद को अनुकूल बनाने के लिहाज से 10 विशेष ऑक्सीजन बनाने वाले जीन्स विकसित कर लिये थे। अध्ययन के मुताबिक तिब्बत के निवासी पोलीसीथेमिया से बचाव के लिए आनुवांशिक तौर पर अनुकूल हो गये।

पोलीसीथेमिया एक प्रक्रिया है, जिसमें शरीर ऑक्सीजन की कमी के चलते अधिक लाल रक्त कणिकाएं बनाता है और फेफड़ों और मस्तिष्क में सूजन आदि समेत अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी होती हैं, जिससे कि श्वसन प्रणाली को नुकसान हो सकता है। लेकिन तिब्बत के लोग समुद्रस्तर से 14 हजार फुट या इससे अधिक ऊंचाई पर आसानी से रह लेते हैं, और वहां ऑक्सीजन का स्तर कम होने के बावजूद उनके शरीर में लाल रक्त कणिकाओं का अधिक उत्पादन नहीं होता और उन्हें फेफड़े या मस्तिष्क संबंधी जटिलताओं का सामना नहीं करना पड़ता।

यूनिवर्सिटी ऑफ उटाह स्कूल ऑफ मेडिसिन तथा छिंगहाई यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों ने उन साक्ष्यों को खोजा है, जो इन 10 जीन्स से जुड़े हो सकते हैं। इनमें से दो विशेष जीन हीमोग्लोबिन से जुड़े हुए हैं। अधिक ऊंचाई पर फेफड़े और मस्तिष्क संबंधी समस्याओं से कभी कभी पर्वतारोहियों तक को खतरा होता है। अध्ययन का नेतृत्व करने वाले लिन बी. जार्डे ने कहा, ‘पहली बार हमें ऐसे जीन्स का पता चला है जो रहने के लिए अनुकूलन में मदद करते हैं।’

वैज्ञानिकों ने अमीनो अम्ल में खोजा कैंसर का इलाज





 वैज्ञानिकों ने पाया है कि हमारे आहार में पाया जाने वाला सामान्य सा अमीनो अम्ल अर्जीनाइन कैंसर के इलाज में बहुत कारगर हो सकता है। यह बहुत सस्ता है और प्रतिग्राम इसकी कीमत 20 से 25 रूपये है। क्षारीय माध्यम में इसकी उचित खुराक लेने से यह अमीनो अम्ल कैंसर के इलाज में लाभकारी हो सकता है। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) ने इस अमीनो अम्ल को परखा है।

विकिरण जीवविज्ञान तथा स्वास्थ्य सेवा डिविजन में इम्युनोलाजी और हाइपरथर्मिया अनुभाग के मुख्य अनुसंधानकर्ता टीबी पौडवाल ने कहा, ‘अर्जीनाइन मानव शरीर में उत्पन्न होने वाला सस्ता अमीनो अम्ल है और यह कैंसर निरोधी पेप्टाइड (एसीपी) के रूप में काम करता है। एसीपी कोशिका झिल्लियों को नष्ट कर रसौली कोशिकाओं को समाप्त कर देते हैं।’ द आ॓पन कैंसर जर्नल के नये संस्करण में इस निष्कर्ष का प्रकाशन हुआ है। उन्होंने लिखा है, ‘एसीपी का यह कैंसर निरोधी गुण कैंसर कीमोथेरेपी के प्रतिकूल प्रभावों को दूर करता है। साथ ही सामान्य कोशिकाओं पर किसी प्रकार के हानिकारक प्रभाव नहीं डालता है।’

गंगा डॉल्फिन भारत का जल जीव घोषित

: भारत का गंगा डॉल्फिनलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके गंगा डॉल्फिन को भारत का जल जीव घोषित कर दिया गया है. गंगा डॉल्फिन को बचाने की मुहिम तेज कर दी गई है. पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने यह एलान किया.

रमेश ने कहा कि गंगा डॉल्फिन की प्रजाति खतरे में है और उसे राष्ट्रीय जल जीव घोषित करने के साथ सरकार लोगों में जागरूकता बढ़ाना चाहती है. साथ ही भारत सरकार उसकी रक्षा के लिए समर्थन जुटाना चाहती है. रमेश का मानना है कि इस कदम के साथ युवा पीढ़ी में डॉल्फिन के संरक्षण और उन्हें बचाए रखने की भावना जग सकेगी. हाल ही में बिहार में गंगा नदी के किनारे चार ऐसे डॉल्फिन मरे हुए पाए गए थे.

रिपोर्ट है कि शिकारियों ने इन डॉल्फिनों को जाल में फंसा कर तब तक पीटा, जब तक उनकी मौत न हो गई हो. डॉल्फिनों के पोस्ट मार्टम से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि उन्हें मारा गया था. डॉल्फिन की चर्बी से तैयार होने वाला तेल बेहद कीमती होता है और इसकी लालच में शिकारी गंगा डॉल्फिन का शिकार करते हैं. अवैध शिकार की वजह से भारत में इन डॉल्फिनों की संख्या सिर्फ 2000 रह गई है.


भारत में 1972 के वन संरक्षण कानून में ही इन डॉल्फिनों को लुप्त होने के कगार पर बताया गया था. गंगा डॉल्फिन उन चार डॉल्फिनों की जाति में से है, जो सिर्फ मीठे पानी यानी नदियों और तालाबों में पाए जाते हैं. गंगा डॉल्फिन गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, कर्णफुली और संगू नदियों में पाया जाता है.
चीन में यांग्त्से नदी में बायजी डॉल्फिन, पाकिस्तान में सिंधु नदी में भुलन डॉल्फिन और दक्षिण अमेरिका में अमेजन नदी में बोटो भी डॉल्फिन पाए जाते हैं, जो खत्म होने के कगार पर पहुंच चुके हैं. समुद्र में डॉल्फिनों की दूसरी जातियां होती हैं. 2006 में विशेषज्ञों ने चीन के मीठे पानी में पाए जाने वाले डॉल्फिन को विलुप्त बताया.

मीठे पानी के डॉल्फिन कई कारणों से खतरे में हैं. उनके तेल को पाने के लिए अवैध शिकार के अलावा वह मछुआरों की जालों में भी फंस कर मर जाते हैं. इसके अलावा नदियां प्रदूषित होती जा रही हैं और बांध बनाने की वजह से वह एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और उनका प्रजनन नहीं हो पाता. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत के स्थानीय संगठनों के साथ मिल कर यहां के डॉल्फिनों को बचाने की पहल की है

हवाख़ोर योगी विज्ञान के लिए अबूझ पहेली

 वे न कुछ खाते हैं और न पीते हैं. सात दशकों से केवल हवा पर जीते हैं. गुजरात में मेहसाणा ज़िले के प्रहलाद जानी एक ऐसा चमत्कार बन गये हैं, जिसने विज्ञान को चौतरफ़ा चक्कर में डाल दिया है.

भूख-प्यास से पूरी तरह मुक्त अपनी चमत्कारिक जैव ऊर्जा के बारे में प्रहलाद जानी स्वयं कहते हैं कि यह तो दुर्गा माता का वरदान हैः "मैं जब 12 साल का था, तब कुछ साधू मेरे पास आये. कहा, हमारे साथ चलो. लेकिन मैंने मना कर दिया. क़रीब छह महीने बाद देवी जैसी तीन कन्याएं मेरे पास आयीं और मेरी जीभ पर उंगली रखी. तब से ले कर आज तक मुझे न तो प्यास लगती है और न भूख."

उसी समय से प्रहलाद जानी दुर्गा देवी के भक्त हैं. उन के अपने भक्त उन्हें माताजी कहते हैं. लंबी सफ़ेद दाढ़ी वाला पुरुष होते हुए भी वे किसी देवी के समान लाल रंग के कपड़े पहनते और महिलाओं जैसा श्रृंगार करते हैं.

कई बार जांच-परख

भारत के डॉक्टर 2003 और 2005 में भी प्रहलाद जानी की अच्छी तरह जांच-परख कर चुके हैं. पर, अंत में दातों तले उंगली दबाने के सिवाय कोई विज्ञान सम्मत व्याख्या नहीं दे पाये. इन जाचों के अगुआ रहे अहमदाबाद के न्यूरॉलॉजिस्ट (तंत्रिकारोग विशेषज्ञ) डॉ. सुधीर शाह ने कहाः "उनका कोई शारीरिक ट्रांसफॉर्मेशन (कायाकल्प) हुआ है. वे जाने-अनजाने में बाहर से शक्ति प्राप्त करते हैं. उन्हें कैलरी (यानी भोजन) की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. हमने तो कई दिन तक उनका अवलोकन किया, एक-एक सेकंड का वीडियो लिया. उन्होंने न तो कुछ खाया, न पिया, न पेशाब किया और न शौचालय गये."

भारतीय सेना की भी दिलचस्पी

गत 22 अप्रैल से नौ मई तक प्रहलाद जानी डॉक्टरी जाँच-परख के लिए एक बार फिर अहमदाबाद के एक अस्पातल में 15 दिनों तक भर्ती थे. इस बार भारतीय सेना के रक्षा शोध और विकास संगठन का शरीरक्रिया विज्ञान संस्थान DIPAS जानना चाहता था कि प्रहलाद जानी के शरीर में ऐसी कौन सी क्रियाएं चलती हैं कि उन्हें खाने-पीने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

तीस डॉक्टरों की एक टीम ने तरह तरह की डॉक्टरी परीक्षाएं कीं. मैग्नेटिक रिजोनैंस इमेजींग मशीन से उन के शरीर को स्कैन किया. हृदय और मस्तिष्क क्रियाओं को तरह तरह से मापा. रक्त परीक्षा की. दो वीडियो कैमरों के द्वारा चौबीसो घंटे प्रहलाद जानी पर नज़र रखी. जब भी वे अपना बिस्तर छोड़ते, एक वीडियो कैमरा साथ साथ चलता.

परिणाम आने की प्रतीक्षा
इस बार डीएनए विश्लेषण के लिए आवश्यक नमूने भी लिये गये. शरीर के हार्मोनों, एंज़ाइमों और ऊर्जादायी चयापचय (मेटाबॉलिज़्म) क्रिया संबंधी ठेर सारे आंकड़े जुटाये गये. उनका अध्ययन करने और उन्हें समझने-बूझने में दो महीने तक का समय लग सकता है.

डॉक्टरों का कहना है कि इन सारे परीक्षणों और आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर प्रहलाद जानी के जीवित रहने का रहस्य या तो मिल जायेगा या उनके दावे का पर्दाफ़ाश हो जायेगा. पिछली परीक्षाओं और अवलोकनों से न तो कोई रहस्य खुला और न कोई पर्दाफ़ाश हो पाया. बल्कि, जैसा कि डॉ. सुधीर शाह ने बताया, डॉक्टरों की उलझन और भी बढ़ गयीः "(कहने पर) वे अपने आप अपने ब्लैडर (मूत्राशय) में यूरीन (पेशाब) लाते हैं. यदि वह (पेशाब) 120 मिलीलीटर था और हमने कहा कि हमें आज शाम को 100 मिलीलीटर चाहिये, तो वे 100 मिलीलीटर कर देंगे. यदि हम कहेंगे कि कल सुबह ज़ीरो (शून्य) होना चाहिये, तो ज़ीरो कर देंगे. कहने पर शाम को 50 मिलीलीटर कर देंगे. यानी हम जो भी कहें, वे हर बार वैसा ही कर पाये हैं. यह अपने आप में ही एक चमत्कार है."

दैवीय आशीर्वाद या छल-प्रपंच?

प्रहलाद जानी अपनी आयु के आठवें दशक में भी नियमित रूप से योगाभ्यास करते हैं और ध्यान लगाते हैं. योगी-ध्यानी व्यक्तियों में चमत्कारिक गुणों की कहानियों पर भारत में लोगों को आश्चर्य नहीं होता, पर विज्ञान उन्हें स्वीकार नहीं करता.

विज्ञान केवल उन्हीं चीज़ों को स्वीकार करता है, जो स्थूल हैं या नापी-तौली जा सकती हैं. प्रहलाद जानी इस सांचे में फ़िट नहीं बैठते. तब भी, विज्ञान उनके अद्भुत चमत्कार का व्यावहारिक लाभ उठाने में कोई बुराई भी नहीं देखता. डॉ. सुधीर शाहः "कैलरी या भोजन के बदले वे किसी दूसरे प्रकार की ऊर्जा से अपने शरीर को बल देते हैं. अगर हम उस ऊर्जा को पकड़ सके, उसे माप सके, तो हो सकता है कि हम दूसरे आदमियों में भी उसे प्रस्थापित कर सकें और तब पूरी मानवजाति का और चिकित्सा विज्ञान का भविष्य बदल जायेगा."

अंतरिक्ष यात्राओं के लिए विशेष उपयोगी

भारतीय सेना का रक्षा शोध संस्थान भी यही समझता है कि यदि यह रहस्य मालूम पड़ जाये, तो लोगों को न केवल लड़ाई के मैदान में और प्राकृतिक आपदाओं के समय बिना अन्न-पानी के लंबे समय तक जीवित रहना सिखाया जा सकता है, बल्कि चंद्रमा और मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों के राशन-पानी की समस्या भी हल हो सकती है.

लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या किसी तपस्वी की तपस्या का फल उन लोगों को भी बांटा जा सकता है, जो तप-तपस्या का न तो अर्थ जानते हैं और न उसमें विश्वास करते हैं? क्या यह हो सकता है कि सिगरेट से परहेज़ तो आप करें, पर कैंसर से छुटकारा मिले धूम्रपान करने वालों को?
By ---
Susheel Dwivedi
Village -Pawai
Post- Jariya
District-Hamirpur
U P

40+ महिलाएं भी बन सकेंगी आसानी से मां

 एग फ्रीजिंग यानी अंडाणुओं को संरक्षित करने की नई चिकित्सा तकनीक से उम्मीद की एक नई किरण जागी है। अब महिलाएं 40 साल की उम्र के बाद भी अपने ही अंडाणु से गर्भधारण कर सकती हैं। गौरतलब है कि अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि 40 साल उम्र के बाद महिलाओं के अपने ही अंडाणुओं से गर्भधारण करने की संभावना कम रहती है।

राजधानी में फोर्टिस ला फेम तथा मुंबई के लीलावती अस्पताल के महिला रोग तथा बांझपन विशेषज्ञ ऋषिकेश पई ने इस संबंध में कहाकि विज्ञान की तरक्की के साथ-साथ, हमारे पास अब अनेक विकल्प आ गए हैं जिनकी मदद से हम अपनी समस्याओं से निजात पा सकते हैं। डॉ. पई बताया कि ‘एग फ्रीजिंग’ यानी अंडाणुओं को संरक्षित करने की तकनीक एक लाभकारी चिकित्सीय तकनीक है जिसकी मदद से महिला उम्र के ऐसे दौर में भी संतानोत्पत्ति कर सकती है जब वह इसके लिए पूरी तरह से सक्षम नहीं होती। इस प्रक्रिया के दौरान महिला के शरीर से अंडाणुओं को निकाल कर जमा कर दिया जाता है यानी उस समय तक सुरक्षित कर दिया जाता है जब वह अंतत: संतान उत्पन्न करना चाहती है। उन्होंने कहा, इसका सबसे अधिक लाभ उन महिलाओं को हो सकता है जो संतान उत्पन्न करने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि 40 साल की आयु के बाद संतानोत्पत्ति की संभावनाएं केवल दस प्रतिशत रह जाती है। अंडाणुओं को जमा करने की तकनीक से कई दंपत्ति लाभ उठा चुके हैं। इस तकनीक से गर्भधारण करने में 20-30 प्रतिशत सफलता हासिल हो सकती है। अगर कोई महिला अपने अंडाणु सुरक्षित रखना चाहती है तो उसके लिए सबसे सही आयु 27 से 34 के बीच है। उस समय संतानोपत्ति की क्षमता सर्वाधिक होती है।

ब्लड टेस्ट बताएगा किडनी में गड़बड़ है

   वैज्ञानिकों ने एक अहम खोज में ब्लड टेस्ट का ऐसा तरीका डिवेलप किया है जिससे किडनी से जुड़े गंभीर रोगों का जल्द पता लगाया जा सकता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ ओटेगो की अगुआई वाली एक इंटरनैशनल टीम ने सिस्टेटिन सी नाम का टेस्ट डिवेलप किया है जो गंभीर रूप से बीमार लोगों में किडनी से जुड़ी बीमारी की घातक स्थिति का पता लगाता है।
इस के मुताबिक इस ब्लड टेस्ट से मरीजों में किडनी के जानलेवा जख्मों का जल्द पता लग गया और ये परिणाम वर्तमान में मौजूद स्क्रीनिंग टेस्ट से ज्यादा भरोसेमंद भी थे। लीडिंग साइंटिस्ट प्रोफेसर जोल्टन एंड्रे ने बताया कि इस खोज से किडनी के जख्मों के इलाज में क्रांति आ सकती है। किडनी के जख्मों का जल्द पता लगने से व्यक्ति के बचने के चांस बढ़ सकते हैं। एंड्रे के मुताबिक, दुनिया भर में किडनी में घातक जख्म यानी एक्यूट किडनी इंजरी की बीमारी बढ़ रही है। स्टडी में 444 लोगों को शामिल किया गया था जो आईसीयू में भर्ती थे।

चेचक के ख़त्म होने से शायद एचआईवी संक्रमण और बढ़ा है.

कुछ वैज्ञानिकों के मुताबिक विश्व में चेचक के ख़त्म होने से शायद एचआईवी संक्रमण और बढ़ा है.

विशेषज्ञों का मानना है कि जो दवाई चेचक के ख़ात्मे के लिए इस्तेमाल की जाती थी वो एड्स वायरस के ख़िलाफ़ भी कुछ हद तक कारगर होती थी.

अब जब चेचक की दवा नहीं दी जा रही तो एचआईवी फैल रहा है.
अमरीकी जाँचकर्ताओं के अनुसार प्रयोगों से संकेत मिले हैं कि चेचक की दवा का प्रभाव इस बात पर पड़ता है कि एचआईवी का संक्रमण कितनी तेज़ी से हो रहा है.
हालांकि बीएमसी इम्यूनोलॉजी में शोधकर्ताओं ने ये भी लिखा है कि ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि एचआईवी से लड़ने के लिए चेचक की दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

वर्जिनिया की जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी के डॉक्टर रेमंड और उनके सहयोगी मानते हैं कि चेचक का ख़ात्मा होने के बाद से हाल के कुछ वर्षों में एचआईवी के तेज़ी से फैलने के कारणों का पता लगाया जा सकता है.

एचआईवी संक्रमण

50 से लेकर 70 के दशक तक आते-आते चेचक की दवा देनी बंद की जाने लगी थी क्योंकि ये बीमारी लगभग ख़त्म हो गई थी. लेकिन उसके बाद से एचआईवी संक्रमण तेज़ी से बढ़ा है.

वैज्ञानिक ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि चेचक की दवा बंद होने और एचआईवी के तेज़ी से फैलने का आपस में संबंध है या नहीं.

इसके लिए उन लोगों के व्हाइट बल्ड सेल देखे गए जिन्हें हाल ही में चेचक की दवा दी गई है और फिर इस पर नज़र रखी गई कि एचआईवी का उन पर क्या असर होता है.

ऐसे लोगों में पाया गया कि एचआईवी उतनी तेज़ी से नहीं फैल रहा. यानी चेचक की दवा से एचआईवी फैलने की दर पाँच गुना कम हो गई.

शोधकर्ताओं का कहना है कि ये कहना मुश्किल है कि क्या चेचक की दवा बंद होने से विश्व में एचआईवी संक्रमण तेज़ी आई या नहीं पर इस पर शोध करना ज़रूरी है.

Tuesday, May 11, 2010

पक्षियों और डायनोसॉर के बीच रासायनिक रिश्ते

लंदन. जीवाश्म विज्ञानियों ने पक्षियों और डायनोसॉर के बीच रासायनिक रिश्ते को ढूंढ़ने का दावा किया है। यह उपलब्धि पक्षीनुमा डायनोसॉर ‘डायनोबर्ड’ के 15 करोड़ साल पुराने जीवाष्म के एक्स-रे विश्लेषण से मुमकिन हुई है।

यह जीवाष्म आधा डायनोसॉर और आधा पक्षी का है। इसे आर्कियोप्टेरिक्स नाम दिया गया है। खोजकर्ताओं का मानना है कि जीवाष्म विज्ञान में आर्कियोप्टेरिक्स का वही महत्व है, जो पुरातत्व विज्ञान में मिस्र के फराहो तूतनखामेन का है।

एक्स-रे व सीटी स्कैन में आर्कियोप्टेरिक्स के जीवाष्म के भीतर कुछ खास तरह के रसायन मिले हैं। इनसे आर्कियोप्टेरिक्स के शरीर में मौजूद एक दर्जन रसायन का तो पता चलता ही है, साथ में पक्षियों के शरीर में बाद के विकास क्रम का रोड मैप तैयार करने में भी मदद मिल सकती है।

यहां मिलीं कड़ियां
- आर्कियोप्टेरिक्स के पंखों में फॉस्फोरस और सल्फर मिला जो तकरीबन हर पक्षी में पाया जाता है।

- आर्कियोप्टेरिक्स की हड्डियों में तांबा और जस्ता पाया गया। यह भी मौजूदा पक्षियों में आम हैं।

जल्द आएगी शतायु वाली गोली

लंदन. वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि वे एक ऐसी ‘मैजिक पिल’ के विकास के करीब पहुंच गए हैं जिससे लोग न सिर्फ 100 साल तक जिंदा रहेंगे बल्कि फिट और हैल्दी भी होंगे। लंबी उम्र तथा अल्जाइमर,डायबीटिज और कैंसर जैसी बीमारियों से बचाने वाले जीन की पहचान करने के बाद अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं की टीम इस चमत्कारी गोली को तैयार करने में लगी है। डेली एक्सप्रैस ने यह जानकारी दी।

प्रो.निर बारजिलाई ने लंदन की रॉयल सोसायटी में बताया कि यह ‘मैजिक पिल’ 18 महीनों में बाजार में बिक्री के लिए आ जाएगी। इसे 40 या 50 की उम्र के दौरान लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि 100 की उम्र तक पहुंचने वाले लोगों के शरीर में ‘गुड कोलेस्ट्रोल एचडीएल’ का उच्च स्तर पाया जाता है और यही लंबी उम्र का मुख्य कारक है।

प्रो. निर ने अपने शोध में पाया कि 100 की उम्र पार करने वाले लोगों का ‘गुड कोलेस्ट्रोल एचडीएल’ के उच्च स्तर ने ही अल्जाइमर से बचाव किया।

उन्होंने कहा,यह दवा बाजार में आने के बाद लोगों की पैंशन और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जरूर बहस छिड़ेगी लेकिन चिकित्सीय परिपेक्ष्य से देखा जाए तो लोगों का हैल्दी होना बेहतर है।

Sunday, May 9, 2010

Use of narco analysis ...

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को नार्को टेस्ट सहित ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट को असंवैधानिक करार दिया है। आइए जानते हैं कैसे और क्या होते हैं ये टेस्ट, इनकी अन्य देशों में कितनी है मान्यता। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को नार्को टेस्ट सहित ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट को असंवैधानिक करार दिया है। आइए जानते हैं कैसे और क्या होते हैं ये टेस्ट, इनकी अन्य देशों में कितनी है मान्यता।

सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट समेत ब्रेन मैंपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट किए जाने को असंवैधानिक करार देते हुए बुधवार को कहा कि यह अभियुक्त के मानवाधिकारों का उल्लंघन है । सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना अभियुक्त की सहमति के ऐसे टेस्ट नहीं किए जा सकते हैं। पुलिस और जांच एजेंसियों से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे में जांच में अवरोध आ सकता है और आरोपियों को बचने का मौका मिल जाएगा वहीं कुछ अन्य लोगों का मानना है कि किसी भी व्यक्ति की निजता के लिए ऐसे टेस्ट पर रोक जरूरी है।

विदेशों में कितनी है मान्यता

यूरोप में अधिकांश न्यायिक मामलों में पॉलीग्राफिक टेस्ट को विश्वसनीय नहीं माना जाता है और इसे पुलिस द्वारा सामान्य तौर पर प्रयोग नहीं किया जाता है। हालांकि, किसी मुकदमे में पीड़ित पक्ष मनोवैज्ञानिक से पॉलीग्राफिक टेस्ट के आधार पर अपनी राय देने के लिए कह सकता है और मनोवैज्ञानिक की राय को न्यायाधीश अन्य राय की तरह ही महत्व देते हैं। मगर, इसका खर्चा पीड़ित पक्ष को ही वहन करना होगा।

कनाडा में आपराधिक घटनाओं व सरकारी संस्थाओं में कर्मचारी की स्क्रीनिंग के लिए पॉलीग्राफिक टेस्ट को एक फॉरेंसिक टूल की तरह प्रयोग किया जाता है। १९८७ में कनाडा की सुप्रीम कोर्ट ने पॉलीग्राफिक टेस्ट के नतीजों को अदालत में सबूत के तौर पर मानने से खारिज कर दिया। हालांकि, अदालत के इस निर्णय के बावजूद भी वहां आपराधिक घटनाओं में पॉलीग्राफिक टेस्ट करने में कोई फर्क नहीं पड़ा है।

आस्ट्रेलिया की हाईकोर्ट ने अब तक पॉलीग्राफिक टेस्ट के नतीजों को सबूत के तौर पर स्वीकार करने पर विचार नहीं किया है। हालांकि, न्यू साउथ वेल्स डिस्ट्रिक्ट के कोर्ट ने आपराधिक मामले में इस मशीन के प्रयोग से इंकार कर दिया था।

इजराइल की अदालत पॉलीग्राफिक टेस्ट के नतीजों को विश्वसनीय नहीं मानती है। हालांकि, यहां की कुछ बीमा एजेंसियां पॉलीग्राफिक टेस्ट को महत्व देती हैं और वे लाभकारी से इस बाबत कागज पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं कि उनके पॉलीग्राफिक टेस्ट को सबूत माना जाए।

नार्को

नार्को टेस्ट में एक विशेष प्रकार के रासायनिक यौगिक (जैसा चित्र में है) को प्रयोग किया जाता है। इसे ट्रुथ ड्रगके नाम से भी जाना जाता है। ट्रुथ ड्रग एक साइकोएक्टिव दवा है, जो ऐसे लोगों को दी जाती है जो सच नहीं बताना चाहते हैं। दवा के प्रयोग से व्यक्ति कृत्रिम अनिद्रा की अवस्था में पहुंच जाता है। इस दौरान उसके दिमाग त्वरित प्रतिक्रिया देने वाला हिस्सा काम करना बंद कर देता है। ऐसे में व्यक्ति बातें बनाना और झूठ बोलना भूल जाता है। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत ट्रुथ ड्रग के अनैतिक प्रयोग को यातना के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

हालांकि, मनोरोगियों का उपचार करने में इसका उपयोग होता है। इसका पहली बार प्रयोग डॉ. विलियम ब्लीकवेन ने १९३क् में किया था और इसका आज तक प्रयोग हो रहा है। किसी व्यक्ति को कृत्रिम रूप से निद्रावस्था में ले जाकर उनसे पूछताछ करने की प्रक्रिया को नार्को एनालिसिस कहते हैं। भारत में कथित रूप से सीबीआई जांच के दौरान इंट्रावीनस बारबिटुरेट्स (एक दवा जिसे इंजेक्शन के जरिए नार्को टेस्ट के दौरान दी जाती है) का प्रयोग करती है। भारत में इसे पुलिस वर्षो से प्रयोग कर रही है, जो कि खुद को दोषी ठहराने के खिलाफ दिए गए अधिकारों का उल्लंघन है।

पॉलीग्राफ

पॉलीग्राफ मशीन एक ऐसा उपकरण है जो रक्तचाप, नब्ज, सांसों की गति, त्वचा की स्निग्धता आदि को उस वक्त नापता और रिकॉर्ड करता है, जब किसी व्यक्ति से लगातार प्रश्न पूछे जाते हैं। व्यक्ति से पहले उन प्रश्नों को पूछा जाता है, जिसमें आमतौर पर वह झूठ नहीं बोल सकता हो। जैसे व्यक्ति का नाम, उसके घर का पता, वह कितने साल से नौकरी या व्यवसाय कर रहा है आदि। इस दौरान पॉलीग्राफिक मशीन की मदद से उसका बीपी, धड़कन, सांसों की गति, त्वचा की स्निग्धता आदि रिकॉर्ड कर ली जाती है। इसके बाद उससे वे सवाल पूछे जाते हैं, जिनके जवाब जांच अधिकारी जानना चाहते हैं।

दरअसल, सही जवाब और गलत जवाब के दौरान शरीर की प्रतिक्रिया में उतार-चढ़ाव होने लगता है। इसके आधार पर सच और झूठ का फैसला किया जाता है। वैज्ञानिकों के बीच इसकी विश्वसनीयता कम है। हालांकि, 90-95 फीसदी वकीलों और 95-100 फीसदी पॉलीग्राफिक सेवाएं उपलब्ध कराने वाले व्यवसायी इसे विश्वसनीय बताते हैं। इस टेस्ट के आधार पर ‘सच का सामना’ सीरियल टेलीकास्ट हुआ था। कई लोगाें ने घर में सच का सामना खेला और कुछ कड़वी सच्चाई सामने आने पर आत्महत्या तक कर ली।

ब्रेन मैपिंग

ब्रेन मैपिंग तंत्रिकाविज्ञान की मदद से तैयार की गई तकनीक है। इसमें मस्तिष्क की अलग-अलग तस्वीरों के आधार पर सच और झूठ का फैसला किया जाता है। सभी प्रकार की न्यूरो इमेजिंग ब्रेन मैपिंग का हिस्सा हैं। ब्रेन मैपिंग में डाटा प्रोसेसिंग या एनालिसिस जैसे मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के व्यवहार का खाका खींचा जाता है। यह तकनीकी लगातार विकसित हो रही है और इस पर विश्वास भी किया जाता है।

अमेरिका में 1980 के अंत में द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडीसिन ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस को अधिकृत किया गया कि वह कई तकनीकों का प्रयोग करते हुए न्यूरोसाइंटिफिक सूचनाएं जुटाने के लिए एक पैनल को गठित करे। इसके तहत फंक्शनल मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेजिंग (एफएमआरआई), इलेक्ट्रोइंसेफिलोग्राफी (ईसीजी), पोस्रिटॉन इमीशन टोमोग्राफी (पीईटी) के साथ ही अन्य स्कैनिंग तकनीकों का प्रयोग को विकसित किया गया। इससे स्वस्थ और बीमार दोनों के मस्तिष्क की याददाश्त, सीखने की क्षमता, उम्र और ड्रग के प्रभावों को जाना जा सकता है। यह सभी तकनीकों से दिमाग की अलग-अलग स्थिति में हुए बदलावों की तस्वीरें पेश की जाती हैं। इन्हीं का आकलन करने के बाद किसी नतीजे पर पहुंचा जाता है।

पुख्ता सबूत नहीं

भारत में नार्को टेस्ट की विश्वसनीयता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। वर्तमान में भले ही सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे टेस्ट पर रोक लगा दी हो, लेकिन पहले भी इसे सबूत के तौर पर कोर्ट नहीं मानती थी। नार्को टेस्ट से लिया गया बयान पुख्ता सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता था, लेकिन अदालत में उसे मुख्य सबूत के साथ जोड़कर देखा जा सकता था। संयुक्त राष्ट्र में भी इस प्रकार के टेस्ट पर प्रतिबंध है।

छुप जाएगा जुर्म

च्च्मैं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का सम्मान करता हूं, लेकिन पूछताछ एजेंसियों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक बड़ा झटका है और इससे जांच में एक बड़ी कमी रह जाएगी। साथ ही इस पर रोक से आरोपी अपना जुर्म छुपा सकेंगे।
By
Susheel Dwivedi
School of Biotechnology
Banaras Hindu University
Varanasi

fingerprinting of the universe by Raman Effect:

At school, we were taught that Sir CV Raman won the 1930 Nobel Prize for Physics for discovering the "Raman effect". But when we asked what exactly the Raman Effect was, our science teacher fobbed us off, saying "it's very complicated." Clearly, even he didn't know. Cynical students wondered why a complicated discovery without any obvious use had won the Nobel Prize.

But today, Raman's discovery has finally become a breakthrough technology. Hand-held scanners called Raman scanners, weighing just one-third of a kilo, are being used by US narcotics squads and airports to detect drugs. Security experts think that Raman scanners may be the best devices to detect explosives carried by terrorists. Safety inspectors are using Raman scanners to detect hazardous chemicals and gases. Police forces are using Raman scanners for forensic work.

The scanners work by detecting the molecular structure of the object they are scanning. If you shoot a beam of light on an object, a very small part of it interacts with the atoms of the object and scatters light in a pattern or spectrum unique to that particular molecule. This is the Raman Effect. It is difficult to detect, and typically needs lasers to amplify the signal. Every molecule has a different Raman pattern. This is why Raman scanning has been called the fingerprinting of the universe: it can identify substances as surely as fingerprints can identify humans.

Identifying the chemical composition of a substance typically requires chemical and physical tests that take time, maybe days. They typically require a sample to be extracted and destroyed while testing. But Raman scanning can take just 20 seconds. It does not require cutting, extracting or destroying a substance. Scanners have a laser, spectroscope and an electronic heart that can recognize Raman patterns. This yields almost instant recognition of target substances.

For instance, narcotics squads in the US are using Raman scanners programmed to detect up to 100 drugs. At the scene of a crime, or during airport security checks, the scanner can tell whether a substance is heroin, crack cocaine, amphetamine, or plain chalk. Security experts can programme scanners to detect different sorts of explosives such as RDX or nitroglycerine.

For decades, Raman's discovery could not be converted into easily usable or affordable tools. In his time, equipment for lasers and spectrum separation and scanning were primitive, bulky and costly. Only in the 1980s did laser technology progress to the point where it was compact and economic. This new technology was most popularly established in the CD player: a laser could scan a disc to play music.

Scientists in many fields, including space and telecom, began to research applications for the Raman Effect. Some found ways to enhance the Raman Effect by adding surface metals, making the effect easier to detect. This led ultimately to the invention of scanners that could detect trace elements of less than one part per billion. Such scanners can identify minute quantities of bacteria, chemical pollutants, or explosive elements.

A recent article in The Atlantic, a US monthly, says that Raman scanners are gradually becoming big business. It cites officials at Delta Nu, a manufacturer of Raman scanners, as saying that scanners are already a $150 million business, and growing fast. The company's scanners currently cost $15,000 each, but it hopes to cut the cost to just $5,000 in the next five to ten years.

Researchers at UCLA and Intel have incorporated the Raman Effect on silicon. Because of its crystalline structure, the Raman Effect is 10,000 times stronger in silicon than glass. Researchers at JPL and Caltech have found other ways to increase laser efficiency. This has driven down size and costs.

Researchers at Stanford University are experimenting with Raman scanners to diagnose cancers in various organs. River Diagnostics in Rotterdam is marketing a bacteria analyzer that hospitals can use to instantly detect deadly pathogens. One day, Raman scanners may make blood tests obsolete: a scan may suffice to tell you the content of glucose, cholesterol, uric acid and other elements in your blood.

Scientists aim ultimately to create a database of Raman patterns of every substance for easy identification. This is similar to Nandan Nilekani creating a national database for fingerprints and irises to identify every Indian. Databases have already been created for narcotics, pollutants and explosives, which is why scanners have already become practical tools. Every time they are used to catch a drug smuggler or terrorist, or to detect a cancer or pollutant, we can give thanks to CV Raman. School teachers can now teach students why exactly the Raman Effect is so important: it fingerprints the universe.

Friday, May 7, 2010

मैं हूं एलियन

;मुझे पृथ्वी के लोग एलियन कहते हैं, क्योंकि एलियन का मतलब है, जो हमारे जैसा न हो। मैं हूं भी और नहींभी। कुछ लोग मानते हैं कि मैं किसी दूसरे ग्रह का निवासी हूं, लेकिन कई लोग मेरे एग्जिस्टेंस को नकारते हैं। कई लोग मुझे उड़नतश्तरी से आता हुआ देख चुके हैं, तो कई का मानना है यह सब आंखों का धोखा है।
हालांकि ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि यूनिवर्स में कहीं न कहींधरती से मिलता-जुलता ग्रह हो सकता है, जिसमें हम निवास करते हैं। हमारा जो चित्र लोग देखते हैं, वह लोगों की कल्पनाओं पर आधारित है। हमारी आकृति बनाने में फिल्मों का कम योगदान नहीं।
हाल ही में ब्रिटेन के जाने-माने वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने यह कहकर लोगों को चौंका दिया कि हम लोग अंतरिक्ष में किसी आकाशगंगा के किसी ग्रह पर जरूर रहते हैं और पृथ्वी वालों को हम से सावधान रहना होगा, क्योंकि हम लोग शक्तिसंपन्न भी हो सकते हैं और पृथ्वी पर हमला कर सकते हैं। उन्होंने वैज्ञानिकों को चेतावनी दी कि हमसे संपर्क करने की कोशिश न करें।

जबकि दुनिया के वैज्ञानिक हमसे संपर्क करने की कोशिश करते रहते हैं। कुछ समय पहले हमें सुनाने के लिए वैज्ञानिकों ने बीटल्स धुन अंतरिक्ष में छोड़ी थी। इसके पहले अंतरिक्ष में ऐसे खोजी यान भी भेजे गए, जिनमें मानव के नक्काशीदार चित्र और पृथ्वी की स्थिति बताने वाले नक्शे गए थे। रेडियो संकेतों से भी हमें ढूंढ़ने की कोशिश की गई है। कुछ समय पहले ब्रिटिश रक्षा मंत्रालय के चार हजार पेज के दस्तावेज ने सनसनी फैला दी थी। यह पहला मौका था, जब किसी देश के रक्षा मंत्रालय के चीफ ने हमारे एग्जिस्टेंस को मानते हुए चेतावनी दी कि बार-बार दिखाई देने वाले एलियन को हल्के रूप में न लें।

कहा जाता है कि नासा हमारी एक्जिस्टेंस को छिपाता है। नासा के पूर्व अधिकारी डॉ. वैलेडमीर अजहजा ने कहा था कि नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने मिशन कंट्रोल को मैसेज रिले किए थे कि मून मॉड्यूल के नजदीक लैंड करने के बाद से रहस्यमय वस्तु उनका निरीक्षण कर रही है। नासा ने इसे सेंसर कर दिया था, लेकिन मून मिशन के दौरान कई एस्ट्रोनॉट्स के दावों के कारण 1973 में नासा को भी यह बयान देना पड़ा था कि मून मिशन के तहत अब तक 25 एस्ट्रोनॉट ने एलियन देखने की पुष्टि की है। मून मिशन के प्रोग्राम हेड वार्नर वोन ब्रॉन ने एक मैगजीन को दिए इंटरव्यू में कहा था कि एलियन का अस्तित्व है और वे हमारी सोच से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं।

कहा जाता है कि स्कॉटलैंड के बोनीब्रिज और ब्रिटेन के रेंडएलसैम फॉरेस्ट में हम लोग आते-जाते रहते हैं। यहा के लोगों ने ही सबसे ज्यादा एलियन देखने की बात की है। वहीं सेंट्रल इंग्लैंड के लोगों ने भी 6 घटे में 30 बार यूएफओ को देखने का दावा किया था।